महिलाओं की आजादी त्यौहार, जानिए कैसे हुई घुड़ला पर्व की शुरुआत, क्यों घुड़ला लेकर घूमती है मारवाड़ की महिलाएं


मारवाड़ में घुड़ला पर्व की कहानी एक ऐतिहासिक घटना से जुड़ी है, जो राजस्थान की लोक संस्कृति और वीरता की गाथा को दर्शाती है। यह पर्व चैत्र मास में होली के बाद शुरू होता है और गणगौर के साथ समाप्त होता है। इसे खास तौर पर कुंवारी कन्याएं और सुहागिन महिलाएं मनाती हैं, जो सिर पर छेद वाला मटका (घुड़ला) लेकर गीत गाती हुई गांव-मोहल्ले में घूमती हैं। इस मटके में जलता हुआ दीपक रखा जाता है, जो इस पर्व का प्रतीक है। लेकिन इसके पीछे की कहानी क्या है? आइए जानते हैं:

घुड़ला पर्व की कहानी

लोक मान्यताओं के अनुसार, यह घटना लगभग 500 साल पुरानी है, जो विक्रम संवत 1547 (ईस्वी सन् 1490) के आसपास की बताई जाती है। उस समय मारवाड़ पर जोधपुर के राठौड़ वंश के राव सातल सिंह का शासन था। यह कहानी जोधपुर के पास पीपाड़ क्षेत्र के कोसाणा गांव से जुड़ी है।

एक बार अजमेर के मुगल सूबेदार मल्लू खां ने मांडू के सुल्तान नादिरशाह खिलजी के आदेश पर मारवाड़ के पीपाड़ पर हमला किया और वहां डेरा डाल दिया। उसके एक सेनापति, घुड़ला खां (या घुड़ले खां), ने कोसाणा गांव में गणगौर पूजा कर रही करीब 200 कुंवारी कन्याओं का अपहरण कर लिया। ये कन्याएं व्रत में थीं और मारवाड़ी भाषा में इन्हें "तीजणियां" कहा जाता था। घुड़ला खां का इरादा इन लड़कियों के साथ अत्याचार करना था। उसने गांव वालों का विरोध भी कुचल दिया और कई लोगों को मार डाला।

जब इस घटना की खबर जोधपुर के राव सातल सिंह तक पहुंची, तो उन्होंने तुरंत अपने घुड़सवारों के साथ घुड़ला खां का पीछा किया। एक भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें राव सातल और उनके वीर सैनिकों ने घुड़ला खां को तीरों से छलनी कर मार डाला। इस युद्ध में घुड़ला खां का सिर काट लिया गया और कन्याओं को सुरक्षित बचा लिया गया। हालांकि, इस लड़ाई में राव सातल और उनके कुछ साथी भी गंभीर रूप से घायल हुए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई।

मुक्त हुई कन्याओं और गांव की महिलाओं ने घुड़ला खां के कटे सिर को एक थाली या घड़े में रखकर गांव में घुमाया। उन्होंने इसे जीत और आजादी के प्रतीक के रूप में घर-घर दिखाया और दीपक जलाकर उत्सव मनाया। कहा जाता है कि घुड़ला खां के शरीर पर जितने घाव थे, उतने ही छेद उस घड़े में किए गए।

पर्व की शुरुआत

इस घटना की याद में हर साल चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी (शीतला सप्तमी) से चैत्र शुक्ल तृतीया (गणगौर) तक घुड़ला पर्व मनाया जाने लगा। महिलाएं और कन्याएं एक मिट्टी के घड़े में छेद करती हैं, जो घुड़ला खां के घायल सिर का प्रतीक है, और उसमें दीपक जलाकर गीत गाती हैं, जैसे "घुड़लो घूमेला जी घूमेला"। यह पर्व न केवल आजादी का जश्न है, बल्कि मारवाड़ की नारी शक्ति और वीरता की गाथा भी है। कुछ कथाओं में यह भी कहा जाता है कि इसके जरिए महिलाएं घुड़ला खां जैसे दुष्टों को चेतावनी देती हैं कि वे माता पार्वती की पूजा करने जा रही हैं, और उनमें दम हो तो रोककर दिखाएं।

आज का स्वरूप

आज यह पर्व मारवाड़ (जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर आदि) में उत्साह से मनाया जाता है। कन्याएं और महिलाएं समूह में घुड़ला नृत्य करती हैं और गणगौर पूजा के साथ इसे जोड़ती हैं। गणगौर के दिन घुड़ले का विसर्जन कर दिया जाता है। यह पर्व अब सांस्कृतिक रूप से भी प्रसिद्ध हो चुका है और घुड़ला नृत्य को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी सराहा जाता है।

घुड़ला पर्व मारवाड़ की उस ऐतिहासिक घटना का स्मरण है, जिसमें राव सातल सिंह ने अपनी प्रजा की रक्षा के लिए बलिदान दिया और महिलाओं ने अपनी मुक्ति का उत्सव मनाया। यह कहानी वीरता, संघर्ष और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है, जो आज भी मारवाड़ की गलियों में गूंजती है।