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    सवाल पूछना मना है ? संसद में प्रश्नकाल नहीं होगा !

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    सवाल पूछना मना है ? संसद में प्रश्नकाल नहीं होगा !

    भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश कहा जाता है. लोकतन्त्र का अर्थ है जनता द्वारा जनता के लिए. भारत 1947 में अंग्रेजो की गुलामी से मुक्ति हुआ और 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र लागू हुआ. भारतीय लोकतंत्र में विविधता बहुत है. लोकतन्त्र लोगो को आजादी देता है बोलने की और सरकार की लोगों के प्रति जवाबदेही तय करता है.

    भारत में सरकारो की जवाबदेही तय करने के लिए संसदीय प्रणाली की व्यवस्था है. भारत की संसद में दो सदन है, राज्यसभा और लोकसभा. लोकसभा की कार्यवाही की शुरुआत का पहला एक घण्टा प्रश्नकाल कहलाता है. प्रश्नकाल में सांसद सरकार से अलग - अलग मुद्दों एंव योजनाओं पर सरकार द्वारा किये गए कार्यो पर सरकार से सवाल जवाब तलब कर सकते है. प्रश्नकाल में पूछे गए सवालों का सरकार के मंत्रियों को उत्तर देना भी जरूरी होता है. प्रश्नकाल में सरकार की ये जवाबदेही होती है कि वो सांसदों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उन्हें मौखिक या फिर लिखित में उत्तर दे.

    कॉरोना महामारी संकट की वजह की देश के कई राज्यो में राज्यपाल एंव सरकारों के बीच विधानसभा सत्र बुलाने को लेकर भी खींचतान हुई. हाल ही में घटित दो घटनाओं को देखे तो मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार चाहती थी कि कॉरोना संकट की वजह से विधानसभा सत्र टाल दिया जाये ताकि मध्यप्रदेश की सरकार गिरने से बच जाए लेकिन वहाँ के राज्यपाल ने विधानसभा सत्र टालने से इनकार कर दिया। वही दूसरी ओर राजस्थान की गहलोत सरकार बहुमत परीक्षण के लिए विधानसभा सत्र बुलाना चाहती थी लेकिन राज्यपाल ने कॉरोना महामारी का हवाला देते हुए सत्र बुलाने से इनकार कर दिया. और इसी कॉरोना काल में भीषण महामारी के बीच मध्यप्रदेश में शिवराज चौहान ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और केंद्र में बीजेपी सरकार ने राज्यसभा में नए सदस्यों के लिए शपथ ग्रहण समारोह का भी आयोजन किया.

    देश में एक ही संविधान के अलग - अलग हवाले दिए जाते रहे है. 14 सितम्बर से संसद में मानसून सत्र शुरू हो रहा है लेकिन इस बार संसद के सत्र में प्रश्नकाल नही होगा. सरकार द्वारा प्रश्नकाल नही कराने के पीछे यह तर्क दिया गया है कि कॉरोना महामारी के संकट को देखते हुए सत्र की अवधि को कम करने के लिए प्रश्नकाल को हटाने का निर्णय किया गया है.

    अगर सरकार कॉरोना से निपटने की स्तिथि में नही है तो फिर संसद का सत्र बुलाने की क्या आवश्यकता है ? दूसरा सवाल ये भी है कि क्या प्रश्नकाल के इतर वक़्त में संसद में कॉरोना नही आयेगा ? अगर सरकार को कॉरोना का संकट इतना भयावह लग रहा है तो क्या जरूरी है कि संसद का सत्र अभी बुलाया जाए ? क्या ये भारत के लोकतंत्र को क्षीण करने की एक कोशिश है ? या फिर सरकार जवाबदेही से भागने की कोशिश कर रही है। क्या नरेन्द्र मोदी सरकार धीरे - धीरे तानाशाही की ओर अग्रसर हो रही है ? प्रश्नकाल खत्म करने के बाद भी मीडिया में इसकी कोई चर्चा नही है एंव कमजोर विपक्ष की आवाज गूंज नही रही है.

    देश में अधिकतर पढ़े लिखे युवा संसद की कार्य प्रणाली से आज भी अनभिज्ञ है. देश के युवाओं को जरूरत है कि वो अब पुनः लोकतन्त्र को बचाने की मशाल अपने हाथ में ले. कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री की मन की बात के यूटयूब वीडियो पर सर्वाधिक अनलाइक आने पर बीजेपी के अपने यूट्यूब चैनल और रेल मन्त्रालय की लाइव कॉन्फ्रेंस पर कमेन्ट सेक्शन को हटा दिया गया. भारत में केवल भाजपा में ही आंतरिक लोकतन्त्र है ऐसा कहने वाली पार्टी अब जनता के सवाल सुनने को भी तैयार नही है ? और चौराहे पर खड़ा करके सजा मुकर्रर कर देना ऐसे कहने वाले प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में ही संसद में प्रश्नकाल खत्म कर दिया गया है.

    लोकतन्त्र में विरोधाभास नही होगा और सत्ता पक्ष से सवाल जवाब तलब नही होंगे तो फिर लोकतन्त्र कहाँ बचेगा. युवा भाजपा सरकार के इस रैवये के कारण उससे दूर खिसक रहा रहा है. क्या यह जानना जरूरी नहीं है कि पीएम केयर्स फण्ड के पैसो का कहाँ उपयोग हुआ है ? सरकार अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए क्या कदम उठा रही है ? बेरोजगारी से निपटने के लिये क्या कदम उठा रही है ? जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर मीडिया में कोई चर्चा नहीं है. मीडिया सरकार से सवाल तलब नही करता है बल्कि सिर्फ जंगल न्यूज़ दिखाने में व्यस्त है. उन्हें अब न्यूज़ चैनल कहना भी अतिशयोक्ति लगता है.

    युवाओं को अपनी आवाज स्वयं मुखर करने की जरूरत है. उन्हें सरकार से ये प्रश्न करने की जरूरत है कि आपकी जवाबदेही तय करने वाला प्रश्नकाल इस सत्र से क्यों हटा दिया गया और फिर बगैर प्रश्नकाल संसद का सत्र बुलाने की क्या आवश्यकता है ?

    मीडिया को अब “पूछता है भारत” नहीं बल्कि अब भारत को मीडिया ये पूछने की जरूरत है कि वो स्वयं को मीडिया क्यों कहते है ?  कितनी अजीब बात है ना कि लोकतन्त्र का हवाला देकर ही लोकतन्त्र को कमजोर किया जा रहा है.

    यूपीए सरकार के वक़्त  मनमोहन सिंह की चुप्पी का मखौल उड़ाने वाला मीडिया अब पीएम मोदी की ख़ामोशी पर कोई उनसे सवाल नही करता है. पिछले छः बरसों में पीएम मोदी ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नही की है. वो सिर्फ मन की बात करते है. शायद उन्हें किसी की आवाज अच्छी नही लगती है तभी तो यूट्यूब पर कमेंट बॉक्स में युवाओं के प्रश्नों की भरमार आने पर वो ऑफ कर दिया जाता है. क्या ये बोलने की आजादी पर पाबन्दी नही है ? क्या ये लोकतन्त्र के लिए भयावह नही है ? हो सकता है भविष्य में कोई ऐसा कानून लागू हो जाये कि सरकारो से सवाल पूछना ही कानूनन अपराध हो.

    आज हमें सबसे अधिक प्रश्न पूछने की आवश्यकता है. लेकिन सरकार का रवैया अड़ियल और तानाशाही बन चुका है. वो विरोध के हर स्वर को चुप कर देना चाहती है. यही महाराष्ट्र में भी हो रहा है. कँगना रनौत के बंगले पर दुर्भावना पूर्ण कार्यवाही की गयी. हालाँकि कँगना का मुम्बई की पीओके से तुलना करना भी गलत है. लेकिन अगर सरकारें यूँही विरोधी स्वरों को दबाने का प्रयास करती रहेगी तो लोकतन्त्र का भविष्य खतरे में जा सकता है. हमें अपनी बोलने की आजादी को बचाना होगा और सरकारों की जवाबदेही पर प्रश्न करने होंगे तभी लोकतन्त्र मजबूत रहेगा.

    भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि एक समय डाकू के रूप में कुख्यात रही फूलन देवी जेल की सजा काटने के बाद इसी भारतीय संसद की सदस्य बनी थी. ये सब लोकतन्त्र के बदौलत मिली आम आदमी को आजादी की वजह से ही मुकम्मल हुआ है. क्या कारण है कि आज संसद की लोकसभा में प्रश्नकाल को खत्म करने पर भारतीय संसद का सत्ता पक्ष का एक भी सदस्य इसके खिलाफ मुखर नही होता है ? कोई भी सदस्य सरकार से इस बारे में प्रश्न नही कर रहा है ? सत्ता पक्ष तो छोड़िए विपक्ष में बैठे सौ से ज्यादा सांसदों में से एक ने भी प्रश्नकाल नही कराने की वजह से संसद का सत्र बायकॉट करने का ऐलान नही किया है.

    क्या संसद के सदस्यों को क्या आत्मावलोकन करने की जरूरत नही है। वो संसद में लोगो की आवाज बनकर गये है लेकिन वो आवाज अब खामोश है. आखिर क्यों भारत के सांसद सरकार के प्रश्नकाल नही कराने पर अपना विरोध दर्ज नही करवा रहे है ? और सांसदों की चुप्पी पर मीडिया सवाल नही करता है ? क्या हर कोई बोलने से सवाल करने से डर रहा है ? क्या ये संसद में देश की आवाज को ख़ामोशी से कोई लेना देना नही है ? सरकारे धीरे - धीरे संवाद प्रक्रिया को खत्म कर रही है. हर कोई चुपचाप ये देख रहा है. क्या ये सब लोकतन्त्र के लिए, हमारी आजादी के लिए घातक नही है ? क्या देश सचमुच तानाशाही की ओर बढ़ रहा है ? अभी कुछ भी कहना ठीक नही है. लेकिन सांसदों का खामोश रहना भी ठीक नही है।

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