
1947 में हमारा देश आजाद हुआ और आजादी के लिए लाखों लोगों ने अपना बलिदान दिया सिर्फ इसलिए कि हमारे देश में लोकतंत्र कायम हो सके, जिसमें जनादेश के आधार पर राष्ट्र में जनप्रतिनिधियों को सत्ता के अधिकार मिलते हो। लेकिन देश में आजकल के राजनीतिक हालातों पर नजर डालें तो यह प्रश्न उठते हैं कि क्या देश में अभी भी लोकतंत्र कायम है ? क्या आज भी जनादेश ही सर्वोपरि है? क्या यह मान लिया जाए जनादेश का कोई महत्व नहीं रहा ? यदि हाँ, तो फिर जनादेश की अवहेलना के बढ़ रहे मामलों के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या हम गाँधी, नेहरु, पटेल, भगत सिंह और बॉस जैसे क्रांतिकारियों के सपनों के भारत को बनाने में कुछ हद तक भी कामयाब हो पाए हैं ?
ये प्रश्न इसलिए उठते हैं क्योंकि आजकल नेताओं के लिए दल बदलना कपड़े बदलने जैसा हो गया है, पार्टी और विचारधारा में अब दम नहीं रहा, पार्टी अब अच्छी नहीं लगती, उसके सिद्धांत अब अच्छे नहीं लगते, पैसा नहीं मिला या पद नहीं मिला ऐसे फालतू के बहाने बनाकर दूसरी पार्टी की ओर लपक लेते हैं, फिर जनादेश का मतलब क्या है?
चलिए एक-एक कर इन प्रश्नों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं। सबसे पहले देखते हैं कि क्या देश में अब भी लोकतंत्र कायम है ? केंद्र में अभी के लिए सिर्फ राजतंत्र चल रहा है, क्योंकि बिना किसी चर्चा के कोई प्रस्ताव विधेयक का रूप ले लेता है, तो यह किसी भी मायने में लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। केंद्र सरकार के कार्यों की समीक्षा और विरोध करने के लिए मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है जो अभी के लिए नजर नहीं आ रहा है।
दूसरी और राज्यों की बात करें तो वहां तो पूछिए मत पहले जातिगत समीकरण बैठाकर सीटें हासिल कर ली जाती है, फिर नेता अपनी जरूरत के अनुसार सत्ता या पैसों के लालच में पार्टी बदल लेते हैं।
मेरा मानना है कि जातिवाद के आधार पर वोट नहीं दिया जाना चाहिए। देश से जातिगत भेदभाव को मिटाया जाना चाहिए, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर नजर डालें तो यह बातें सिर्फ किताबों और टीवी में ही अच्छी लगती है। अपनी जाति का नाम आते ही हम सबसे पहले उसके साथ खड़े हो जाते हैं फिर ये सोचने का समय नहीं होता हमारे पास कि सही क्या है और गलत क्या है ?
बदलाव की शुरुआत तो हमें ही करनी होगी वरना जिस देश ने वर्षों पहले धर्म के आधार पर बंटवारे का दंश झेला था वो देश फिर जातियों के आधार पर टूट जाएगा। अगले प्रश्न की बात करें तो क्या अब भी जनादेश ही सर्वोपरि है ? तो इसका जवाब हाँ भी है और नहीं भी।
हां, इसलिए कि एक बार तो नेता जनादेश को स्वीकार कर लेते हैं और ना इसलिए कि फिर ये लोग पार्टी बदल कर जनादेश का अपमान करते हैं और आजकल यह आम बात हो चली है, जिसमें जनता किसी और पार्टी को सत्ता चलाने का अधिकार देती है और नेता सांठगांठ के जरिए या खरीद-फरोख्त के जरिए या उन्हें सत्ता की ताकत दिखा कर, डरा – धमकाकर किसी तरह अपनी पार्टी में मिला देते हैं।
जनादेश की अवहेलना का सीधा मतलब लोकतंत्र की भावना को ठेस पहुंचाना और जनता को उसके अधिकारों से वंचित करना है, क्योंकि जब जनता की आवाज सुनी ही नहीं जाएगी तो वह लोकतंत्र के क्या मान रह जाएंगे।
अब बढ़ते हैं तीसरे सवाल की तरफ कि क्या आप जनादेश का कोई अस्तित्व नहीं रहा ? तो अगर आजकल के नेताओं को देखें तो स्पष्ट रूप से मान लिया जाए कि जनादेश का अस्तित्व पूरी तरह से खतरे में है 21 वीं सदी में हमने भारतीय राजनीति के कई रूप देखे हैं, कांग्रेस पार्टी से नेताओ का मोहभंग हो रहा है, इसके नेतृत्व पर सवाल खड़े किये गये। पार्टी अब तक अपने सबसे कमजोर दौर में है। दूसरी ओर भाजपा सत्ता में अपनी पकड़ बनाने में कामयाब रही है और तथाकथित सत्ता की अपनी शक्तियों का भरपूर दुरुपयोग कर रही है। जब तक पार्टियां सत्ता के लालच से ऊपर उठकर राष्ट्र और जनता को सर्वोपरि नहीं मान लेती तब तक जनादेश के अस्तित्व की लड़ाई जनता को ही लड़नी होगी।
अंतिम प्रश्न की बात करें कि जनादेश की अवहेलना के लिए कौन जिम्मेदार है ? तो हम पाएंगे कि इसके लिए सबसे पहले जिम्मेदार है, सत्ता के लालच में अपनी पार्टी को छोड़कर किसी दूसरी पार्टी में जाने वाले लोग यानी सीधे शब्दों में दलबदलू नेता या कहें अवसरवादी नेता।
दूसरे जिम्मेदार हैं हम जो नेताओं की सत्ता प्राप्ति की होड़ को टीवी पर बड़े गौर से देखेंगे और आनंद उठाएंगे, मगर क्या हम इस बात को जानते हैं कि सीधे तौर पर यह नेता देश को ठोकर मार रहे हैं अर्थात हमारे आदेश को मानने से सिरे से खारिज कर रहे हैं। जबकि इस राष्ट्र की आजादी के साथ यह तय हुआ था कि जनादेश के आधार पर ही सत्ता संचालन का अधिकार प्राप्त होगा।
आखिरी प्रश्न की बात करें तो उसका सीधा जवाब है कि गाँधी, नेहरु, पटेल, भगत सिंह और बाॅस के सपनों के भारत को हम तुच्छ भी सच नहीं कर पाए हैं। क्या हम सही मायने में लोकतंत्र को कायम कर पाए हैं ? क्या हम लोकतंत्र की मर्यादा का सम्मान करते हैं ? क्या हमारे पास राष्ट्र को सर्वोच्च समझने वाले लोग हैं ? क्या इस देश में जनादेश का सम्मान करने वाले नेता हैं ? क्या राष्ट्रहित और जनकल्याण की भावना रखने वाले नेता हैं ? और सबसे बड़ा प्रश्न कि क्या हमारे अंदर सत्ताधीशों के गलत फैसलों के विरूद्ध आवाज उठाने की क्षमता है ? ये सब बातें आजादी के दीवानों का स्वप्न थे और आज भी कई मायनों में यह सब स्वप्न ही नजर आता है।
देश की सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि जनादेश का अपमान हो रहा है और इसके खिलाफ कहीं भी जनाक्रोश नहीं है, जो लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि जहां नेताओं के गलत कार्यों के खिलाफ जनता खड़ी नहीं होती वह राष्ट्र अपनी स्वतंत्र पहचान खो देता है। तो क्या हम भी साम्यवाद की तरफ बढ़ रहे हैं ?

